लोकमानस और लोकतत्व

सभ्यता के विकास के साथ ही मानवीय चिंतन प्रक्रिया के दो स्वरूप सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। पढे लिखे परिष्कृत व्यक्ति या समाज के चिंतन धारा के रूप में और अपढ़ एवं अपरिष्कृत व्यक्ति या समाज की व्यावहारिक क्रियाकलाप संबंधी चिंतन प्रक्रिया के रूप में। मानवीय समाज मेन ये दोनों प्रकार की चिंतन धाराएँ एवं तज्जन व्यवहार या संस्कृति की धाराएँ विश्व के सभी देश और काल में समानान्तर रूप से प्रवाहित होती रहती है। यह शाश्वत और सार्वभौमिक तथ्य प्रक्रिया भारतीय समाज में भी सभ्यता विकास के आदिम काल से आज तक चली आ रही है, चलती रहेगी।